Sunday, June 8, 2014

एक हसीन ख्वाब

बात शुरू होती है बचपन के उन खूबसूरत मौसमों से , जब दिन गुज़रते थे हर डाल डाल पात पात। दूर से मदभरी हवाओं में उड़ते हुए बदल, घटाओं  का वो मदहोश कर देने वाला संगम।  जाने अनजाने से वो गीत निकल ही जाता था - ये शाम मस्तानी , मदहोश किये जाए।
 दोस्तों का इतना जमघट तो नहीं था लेकिन तन्हाई का नामोनिशां भी नहीं था। कुदरत अपने हज़ार हाथों के साथ खेला करती थी।  वक़्त गुज़रा। दिन बीते। वो ज़माने गए। फुर्सत के रात दिन भी ना रहे। सुना था मौसम नहीं बदला करते लेकिन अब वो मौसम महसूस भी तो नहीं होते। वो बारिश वैसी बारिश ना रही। गर्मी में अब वो चमक ना रही। ऐसा भी होता है के हम बदल जाते हैं शायद, मौसम वही रहते हैं।
खैर मैं अपने ख्वाब की बात करना चाहता था। एक बस्ती है। कच्ची सड़कें। छोटे छोटे घर। कुछ झोपडी नुमा। कुछ  ईंटो से बने पैबंद शुदा। यही कोई 40 - 50 घर होंगे उस बस्ती में। अक्सर घर आपस में जुड़े हुए थे। हर घर के बाहर एक छोटा सा आँगन है। बस्ती में एक चौक भी है। एक सरकारी बल्ब लगा हुआ है जो अपनी उम्र को पहुँच चुका है। छोटे छोटे बच्चे आपस में खेल  कूद रहे हैं। हर घर में एक रूह महसूस होती है। वो बस्ती ही रूहानी लगती है। वहां कोई किसी की जात पात नहीं जनता। कहीं अगर ऐसी बाते सुनने में भी आती तो वो तो वो लोग अक्सर मासूमियत से अपने कंधे झुका देते और ये महसूस करा देते के ये बातें बड़ी बोझिल हैं। हमे इससे कोई सरोकार नहीं।
लोग क्या हैं के बुज़ुर्गी को पहुंचे हुए। कोई बच्चा भी गलती करता  तो कोई भी बस्ती का बडा उसे डांट देता।  कई बार पिटाई भी की जाती। लेकिन मजाल है के उनके माँ बाँप उफ़ भी करें। उन्हें यकीन था के बस्ती का हर बुज़ुर्ग उनके बच्चो की खैरियत ही चाहेगा। 

त्योहारों में जान होती।  क्या ईद , क्या दिवाली, वहां तो हर दिन ईद , हर दिन दिवाली होती।
तभी ख्वाब में देखता हूँ के मैं पता नहीं कहाँ से लेकिन मैं उस बस्ती में चला आता हूँ। मेरा अपना घर इस बस्ती में नहीं है लेकिन इसकी फ़िक्र किसे थी , वहां तो हर घर अपना ही घर था। बस्ती में घुसते ही बच्चे दौड़ आते।  मुझे घेर लेते। मैं अक्सर उनके लिए कुछ न कुछ ले आता। बस्ती में घुसते ही शांति मौसी का घर पड़ता। मेरे आते ही वो पूरे हक़ से बोलती "चल आजा खाना तैयार है ", इसी बीच सामने वाले घर से ज़रीना दौड़ती हुई आई। उसके हाथ में हमेशा की तरह मिठाई होती, वो बोलती "नहीं शांति मौसी , आज भाईजान हमारे यहाँ खाना खाएंगे", दोनों में बहस होती और मैं हमेशा की तरह शांति मौसी के घर जाता, और ज़रीना को उसके पसंद की गुड़िया बनाने का सामान दे देता। 
                                               वो मकान मानिंद महल , वो लोग जैसे फ़रिश्त।
                                               क्या बात है इस जगह की , दौर हो जैसे कोई गुज़िश्त।।
                                                                                                                            --सै. असलम बारी 'साहिल'

शाम को अक्सर लोग चौक में जमा होते। बुज़ुर्ग किस्से कहानियां सुनाकर अपने तजुर्बे बयां करते। मैं अक्सर सारे घरों में जाया करता।  कोई मुझे चारपाई पर बैठा लेता। कोई दुआएं देता। उनकी बातों में प्यार भरा होता। वो लोग गरीब थे , लेकिन दिल के इतने रईस मैंने कभी नहीं देखे। लोग एक दूसरे से मिलते , मोहब्बत से भरी बातें करते। कभी किसी के घर खाना नहीं बना होता, तो पड़ोस के  लोग अपना खाना बाँट लिया करते। वहां कोई भी गैर मुनासिब बात सुनने को नहीं मिलती। अक्सर शाम को हम लोग परमजीत चाचा के घर जमा होते।  उनका आँगन बड़ा था। बस्ती के कुछ लोग और बच्चे वहां अक्सर पढ़ने के लिए जमा होते। बहुत खूबसूरत शाम होती। मैं अक्सर वहां पढ़ाया करता। वो बच्चे बहुत दिल से पढ़ा करते।  उनको देख बहुत अच्छा लगता।  आखिर वो हमारा मुस्तकबिल हैं।  वहां लोग पढ़ते , चर्चाये करते , एक दुसरे के सुख दुःख सुनते। और भी बहुत कुछ है कहने को उस बस्ती के बारे में। इन्शाह अल्लाह ,  वक़्त मिला तो फिर बात करेंगे
आज जब मैं ज़िन्दगी की भागदौड़ मैं मसरूफ हूँ, जब भी ये ख्वाब देखता हूँ, सुकून मिलता है। ये  ख्वाब बस मेरा ही नहीं है, मेरी तरह सोचने वाले हज़ारो लोगो का है। उम्मीद है हम सबके ख्वाब पूरे हों। उसके लिए हमे ऐसी किसी "सपनो " की बस्ती को खोजने की ज़रूरत ना पड़े। हमारा घर , पड़ोस , शहर ही उस हसीं बस्ती की शक्ल ले ले। लोगो में इंसानियत पैदा हो और हमारा समाज  मुकम्मल हो जाये।
                                                कुछ तू बढ़े , कुछ मैं बढ़ू , फिर "वो " दे साथ मेरा।
                                                बेशक ये ज़मीं तेरी , आसमां तेरा ,
और जहाँ तेरा।।
                                                                                                                              -- सै. असलम बारी 'साहिल'
                                                                                                           
आमीन 

10 comments:

  1. Kuch Saalo Baad,Ye Pal Bohot Yaad Ayenge,
    Jab Hum Apne Apne Mukaam Per Phunch Jayenge,
    Akele Jab Bhi Honge,
    Sath Guzre Hue Lamhe yaad Ayenge,
    Paise To Bohot Honge Shayad,
    Par Karcha Karne Ke Lamhe Kam Ho Jayenge,
    Aaj Zyada Mesg Ane Se Gussa Hote Hain,
    Kal Ek-Ek Mesg Ko Taras Jayenge,
    Ek Cup Chai yaad Dosto Ki Dilayegi,
    Fir Sochte Sochte Ankhe Naam Ho Jayegi,
    In Palo Ko Mil Kar Dil Khol Kar Jee Lo Yaaro,
    Kyun ki Zindagi In Dino Ko Fir Nahi Dohrayegi.

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  2. Sir ji this one is the best among all the blog you post...... :)

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  3. irshad irshad bohot khub !!!!!!

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  4. ye gali or ye duniya hoti to me sayad iska Ihssa banna chahata .. par sayad ye duniya to hai par sayad hum apne ko bhul............ .... aaj koi apne bujurgo ke sath bethna pasand nahi karta ..BADE AFSOS KI BAAT HAI ....... YE DUNIYA TO HAI PAR SAYAD HUM AAJ HUM NAHI HAI ...

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  5. zindagi ki iss raftar me,
    aksar hum badho ko bula dete he,

    dikhaawe ke iss sansaar me,
    aksar unka dil dukha dete he,

    dekhna ho agar sachaa pyar,
    palat ke dekho apni zindagi ke panne ek bar,

    kon tha jisne badaa kia tumhe,
    ladkhadaate the jab kadam sambaal liya tumhe,

    daulat ke iss pyar me,
    aksar hum badho ko bula dete he.

    dikhaawe ke iss sansaar me,
    aksar unka dil dukha dete he.

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  6. Amaaaaaaaaaaaazing article sir.

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  7. A Very Nice Article Sir

    May this dream come true

    Ameen

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  8. subhan allah.... har ek lafz ne choo liya......

    kuch esi hi duniya h hamare khwabo ki,
    na bandishe ho, na jaat ho insano ki,
    mohabbat ho kudarat ke har ek katre se
    fir koi shikayat na rahegi khuda se...

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